Saturday, February 27, 2010
अब तो एकदिनी क्रिकेट से बंधे रहेंगे दर्शक
Thursday, February 18, 2010
जीत गया टेस्ट क्रिकेट...
Wednesday, February 17, 2010
चलो काई तो सोच रहा है दूर की
चन्द्र कान्त शुक्ला
मानव संसाधन मंत्रालय पिछले लम्बे समय से विवादों का पर्याय बन गया था। इस पद को सुशोभित करने वाले सर्वश्री मुरली मनोहर जोशी और श्रीमान अर्जुन सिंह ने सारी ऊर्जा पार्टी का एजेंडा लागू करने में ही लगा दी। दोनों में भगवाकरण और मुस्लिम तुष्टिकरण में एक-दूसरे से आगे बढ़ने की होड़ ही लगी रही। एक भी उल्लेखनीय कार्य दोनों ही नहीं कर पाए। अब यह देखकर अच्छा लग रहा है कि नए मानव संसाधन मंत्री कुछ तो हाथ-पैर मार रहे हैं। बोर्ड परीक्षाओं पर सराहनीय पहल के बाद प्रवेश परीक्षाओं और एक समान पठ्यक्रम पर उनकी पहल यदि सिरे चढ़ती है तो आने वाली पीढ़ियों का कुछ तो भला होगा ही। यदि सिरे चढ़ती है यहां मैं इसलिए कह रहा हूं कि हमारे देश में कुछ अच्छी योजनाएं महज इसलिए लागू नहीं हो पार्इं क्योंकि अनेक राज्यों में दूसरे राजनीतिक दलों की सरकारें होती हैं और सियासी वजहों से उन्हें केंद्र सरकार की हर नीति का विरोध ही करना होता है।
Tuesday, February 16, 2010
कलाई के जादूगर की बाजीगरी
Friday, June 12, 2009
शिक्षा पद्धति को टेंसन
रोजगार ही नहीं संस्कार भी हो शिक्षा में
विनोद डोंगरे
अप्रैल के खत्म होते ही शिक्षा सत्र भी खत्म हो जाता है। नए शिक्षा सत्र के लिए तैयारियां प्रारंभ हो जाती है। हमेशा की तरह इस वर्ष भी चारों ओर 'शिक्षा प्रतिष्ठानों का जोर-शोर शुरू हो चुका है। छोटे-बड़े विद्यालय हजारों-लाखों की तादाद में अनेक फीचर्स (विशेषताएं) देने की बात कहते हुए बाजार में कुद पड़े हैं। कोई अंग्रेजी बोलने की शिक्षा मुफ्त में देने की बात कर रहा है, तो कोई कंप्यूटर का ज्ञान। कहीं पढ़ाई के साथ रोजगार देने की योजनाएं बताई जा रहीं हैं, तो कहीं पढ़ाई पूरी होते ही रोजगार। हमारा भारतवर्ष वह देश है, जहां किसी समय गुरूकुल पद्धति से शिक्षा दी जाती थी और विद्यार्थी का सर्वंगीर विकास होता था। उसे बौद्धिक रूप से मजबूत बनाने के साथ-साथ नैतिक रूप से भी इतना सबल बना दिया जाता था कि वह बालक बाहरी एवं आंतरिक संकटों का दृढ़ता के साथ सामना कर सकता था, किंतु वर्तमान शिक्षा देश के छात्रों को सही दिशा में नहीं ले जा रही है। वह उनके चरित्र का पूर्ण विकास नहीं कर रही है। वह देश की मिट्टी और संस्कृति से पीछे चली गई है। यह शिक्षा चरित्र का निर्माण नहीं करती, श्रम की प्रतिष्ठा नहीं कर रही है और यह शिक्षा पद्धति देशभक्त पैदा करने में भी असंदिग्ध रूप से असफल रही है। इसी तारतम्य में यह भी ध्यान देने योग्य है कि मध्यप्रदेश में हाईस्कूल का परीक्षा का परिणाम खराब आने के बाद करीब आधा दर्जन छात्र आत्महत्या कर चुके हैं। इस मामले को लेकर राज्य में परिस्थितियां ऐसी बन रही हैं कि सरकार को अपनी नीतियों में परिवर्तन करने का विचार करना पड़ रहा है। ऐसी भी बातें हो रहीं है कि कृपांक ५ से बढ़ाकर २० कर दिए जाने से सवा लाख विद्यार्थी उत्तीर्ण हो सकते हैं। जाहिर है कि कृपांक में वृद्धि छात्रों को किसी तरह परीक्षा में उत्तीर्ण करने का एक उपक्रम मात्र है। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या किसी भी तरह से उत्तीर्ण कर देने से समस्या का हल हो जाएगा? वर्तमान शिक्षा पद्धति भारतीय समाज रचना और संस्कृति से मेल नहीं खाती। इसमें असंख्य खामियां हैं। यह सही है कि शिक्षा का रोजगारपरक होना आवश्यक है, लेकिन संस्कार, नैतिकता और राष्ट्रप्रेम की भावना से इतर सिर्फ और सिर्फ धनोपार्जन की ही शिक्षा क्या देश और समाज के हित में हैं॥?दरअसल, वर्तमान शिक्षा पद्धति के जनक लॉर्ड मैकाले ने रक्त और त्वचा से भारतीय किंतु आदर्श, अभिरूचि और मान्यता में यूरोपीय पीढ़ी तैयार करने की दृष्टि से एक ऐसी शिक्षा पद्धति भारतीय समाज पर थोपी जिसके परिणामस्वरूप इस देश के तत्वज्ञान, संस्कृति तथा जीवन आदर्शों से कटी पीढ़ी का निर्माण होता जा रहा है। वह पीढ़ी सिर्फ और सिर्फ शिक्षा के माध्यम से अधिकाधिक धनोपार्जन करने की जुगाड़ में लगी रहती है। इस तथ्य की पुष्टि के लिए निजी क्षेत्र के ज्यादातर विद्यालयों की वस्तुस्थिति से अवगत हुआ जा सकता है। ज्ञात सत्य है कि कस्बाई इलाकों में संचालित होने में वाले अधिकांश शैक्षणिक संस्थानों में बतौर शिक्षक या प्राध्यापक ऐसे उम्मीदवारों की नियुक्ति की जाती है, जो स्वयं कहीं दूसरी जगह अध्ययनरत होते हैं। उनमें से अधिसंख्य ऐसे होते हैं, जो अपनी आर्थिक आवश्यकता की पूर्ति के लिए वहां पार्ट टाइम जॉब कर रहे होते हैं। यानि, उनकी रूचि न तो शिक्षण में होती है, न ही वे इसके जानकार होते हैं। हद तो यह कि कई स्थानों पर मात्र हायर सेकंडरी स्कूल तक की पढ़ाई किए या कर रहे छात्रों को भी अध्यापन जैसे कार्य के लिए रखे जाने के उदाहरण मिलते हैं। अध्यापन कोई मामूली कार्य नहीं है। वह बेहद गंभीर और अनुभवपूर्ण दायित्व है। शिक्षकों को समाज के निर्माता की संज्ञा यूं ही नहीं दिया गया है। गुरू गोबन्द दोऊ खड़े...जैसे श्लोक यूं नहीं बने हैं। लेकिन जो स्वयं अध्ययन कर रहे हों, उनके पास अध्यापन का गंभीर और दूरदर्शी अनुभव की कल्पना उचित नहीं है। हालांकि इनमें से ऐसे भी होते हैं, जिनकी अध्यापन शैली बेहतर होती है। लेकिन वैसे बिरले ही पाए जाते हैं। एक संस्थान में नियुक्त सारे पार्ट टाइम अध्यापक ऐसे नहीं हो सकते। जबकि होना सभी को चाहिए। जब विद्यालयों के अध्यापक ही स्तरीय न हों, तो अध्यापन में स्तर कहां से होगा। विद्यालय प्रबंधन इसलिए ऐसे कथित अध्यापकों की औन-पौन वेतन में नियुक्ति कर लेते हैं, क्योंकि उनकी न तो वेतन को लेकर कोई शर्तें होतीं हैं, न ही कोई अन्य सुविधाओं को लेकर। इधर, छात्रों से भारी-भरकम शुल्क लेकर बेहतर शिक्षा का दावा करने वाले ऐसे 'शैक्षणिक प्रतिष्ठानों के लिए भी यह लाभप्रद होता है क्योंकि उनका तो ध्येय ही धनोपार्जन होता है, न कि बेहतर शिक्षा देना। मध्यप्रदेश में छात्रों के आत्महत्या करने के मामलों ने शिक्षा की सरकारी व्यवस्था की ओर भी ध्यान खींचा है। और, आत्महत्या भले मध्यप्रदेश में हुए हों, पर शिक्षा के मौजूदा हालात देश के कई दूसरे प्रदेशों में भी ऐसे ही हैं। उड़ीसा, झारखण्ड, उत्तराखंड और कुछ हद तक छत्तीसगढ़ जैसे देश के राज्य इनमें शामिल हैं। बेहतर शैक्षणिक वातावरण की कमी कि इसके पीछे प्रमुख कारण यह है कि जिनकी स्वयं की शिक्षा गुणवत्तापूर्ण होती है, ऐसे लोग अध्यापन के क्षेत्र नहीं आना चाहते हैं। वे अध्यापन के क्षेत्र में इसलिए नहीं आना चाहते, क्योंकि दूसरे क्षेत्रों की बनिस्पत इसमें पैकेज नहीं है। यानि, इस क्षेत्र में आने वाले ज्यादातर लोग ऐसे होते हैं, बाकी क्षेत्रों में भाग्य आजमाने के बाद असफल होने पर बीएड, एमएड आदि का सहारा लेते हुए शिक्षा के क्षेत्र में घुस जाते हैं। उनका उद्येश्य विशुद्ध रूप से नौकरी करना ही होता है। स्वावभाविक तौर पर उनकी मन में यह भावना भी रहती होगी वे ऐसी नौकरी कर रहे हैं, जहां वेतन दूसरे सेक्टर की अपेक्षा कम है। कहने का मतलब, सरकार को शिक्षा के स्तर को बेहतर बनाने के लिए बाकी चीजों के साथ-साथ वेतन व दूसरी सुविधाओं पर भी ध्यान देना होगा। बेहतर समाज की परिकल्पना में पहली आवश्यकता बेहतर शिक्षा की है। शिक्षा ऐसी हो जिसमें नैतिकता, संस्कार, साहस और राष्ट्रप्रेम की भावना समाहित हो। क्योंकि, किताबी ज्ञान से विद्यार्थी उपाधियां तो प्राप्त कर सकता है किंतु समाज के उत्तरदायित्वों को पूरी करने की क्षमता का विकास उसमें नहीं हो पाता है। आज भारत युवाओं का देश है। यहां २५ वर्ष उम्र के सर्वाधिक युवा हैं। ३५ प्रतिशत आबादी १४ वर्ष उम्र की है। ५५ प्रतिशत आबादी काम करने वालों की है। इतनी युवा और श्रम शक्ति होने के बावजूद हम इतने दुर्बल क्यों है॥? हम संकटों से सामना करने की बजाय उससे दूर क्यों भाग रहे हैं..? हममें सम्राट चंद्रगुप्त, आर्यश्रेष्ठ चाणक्य की संकल्पशक्ति का लोप क्यों हो गया है..? हम क्यों भूल गए कि किसी समय हमारा देश ज्ञान-विज्ञान का प्रमुख केंद्र था। यह वही भारत देश है, जहां नालंदा, तक्षशिला एवं हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय जैसे शिक्षा के उच्चस्तरीय केंद्र थे, जहां कभी लगभग ५ दर्जन विषयों की शिक्षा दी जाती थी एवं विश्व भर के हजारों विद्यार्थी यहां पढऩे आते थे। जान-बूझकर एक षडयंत्र के तहत हमें यह सब भुला दिया गया है। हमें भुला दिए गए हमारे आदर्श, हमें आज याद नहीं हमारे प्रेरणा पुंज। भक्त प्रह्लाद से शिक्षा लेने वाला बालक क्या कभी आत्महत्या करने की सोच सकता है॥? सूरज को मुंह में समा लेने वाले बाल हनुमान का स्मरण विद्यार्थी को हो जाने पर क्या वह संकट के सामने नतमस्तक हो सकता है..? सिंह से लडऩे एवं शेरनी का दूध निकाल लेने वाले शिवा के शिवाजी बनने का पाठ यदि पाठ्यपुस्तकों में होता तो फिर इतनी कमजोर पीढ़ी हमारे सामने नहीं होती। हमारे यहां प्राचीन समय से विद्यार्थी, शिक्षक एवं शिक्षास्थल एक अनुशासित समुह के रूप में काम करते आए हैं, किंतु आज शिक्षास्थल पूर्णत: व्यावसायिक, विद्यार्थी स्वार्थी और शिक्षक किताबी ज्ञान देने वाले मास्टर हो गए हैं। संसार में प्रत्येक प्राणी जन्म लेता है और कुछ काल बाद मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। मृत्यु का पांव कब उसे कुचल दे, कोई नहीं जान सकता। मनुष्य जीवन ईश्वर का एक अनुपम उपहार है। मनुष्य को ही परमात्मा ने यह क्षमता प्रदान की है कि वह मृत्यु को भी परे ढकेल कर अमृत्व को प्राप्त करें। इतिहास और श्रे ष्ठ पुरुषों का अध्ययन करने से यह स्पष्ट होता है कि व्यक्ति की उन्नति के लिए कुछ गुण अत्यावश्यक हैं। वे गुण ही मानवता की कसौटियां है। जिसके पास ऐसे गुण जितने होंगे, वह व्यक्ति उतना ही श्रे ष्ठ होगा।
Saturday, June 6, 2009
कुलपतियों को टेंसन
गिरी कुलपति पद की गरिमा
चंद्रकांत शुक्ला, रायपुर।
एक समय था जब किसी विश्वविद्यालय के कुलपति से मुलाकात बड़ी प्रेरणादायी होती थी. आप खड़े होकर पूरे मान-सम्मान के साथ उन्हें सुनते थे. दुर्भाग्य से अब ऐसा नहीं है. वजह जो भी हो, कुलपति अब प्रेरित नहीं करते.ईमानदारी से कहा जाए तो आज एक हद तक स्थिति यह है कि आप कुलपति से मुलाकात करने के बजाए उनसे बचना चाहेंगे. कुलपति के रूप में एक संस्था में पतन का सिलसिला कुछ समय पहले शुरू हुआ और आज की तारीख में इस संस्था को लगा रोग संभवत: आखिरी चरण में प्रवेश कर गया है.
शिक्षा व्यवस्था में रुचि रखने वाले सभी लोगों को इस पर चिंतित होना चाहिए कि कभी संस्थान का पर्याय माने जाने वाले कुलपति पद की गरिमा बड़ी तेजी से गिरी है. अगर कोई शैक्षिक संस्थान अपना पुनरुद्धार चाहता है तो उसे कुलपति कार्यालय में सुधार से इसकी शुरुआत करनी होगी. कोई भी आर्थिक राहत और शिक्षा के क्षेत्र में सुधारों की तीव्र गति तब तक संभव नहीं है जब तक कुलपति के पद की खोई हुई गरिमा फिर से स्थापित न की जाए. भारतीय शिक्षा के भविष्य का प्रत्यक्ष संबंध संस्थान के कुलपति पद के सम्मान से जुड़ा है. यह सुधार कार्यक्रम नई सरकार की प्राथमिकताओं में आना चाहिए. दस केंद्रीय विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की नियुक्ति विवादों से घिरी रही है. जिस तत्परता के साथ तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह ने ये नियुक्तियां की थीं, उससे भौंहें तननी ही थीं. जिस प्रकार से कुलपतियों की नियुक्तियां की जा रही हैं उससे सामान्य विश्वविद्यालयों की साख पर गंभीर संकट खड़ा हो रहा है. निजी विश्वविद्यालयों की हालत तो और भी दयनीय है. सर्वोच्च पद सामान्यतया उस व्यक्ति के पास होता है, जिसकी काबिलियत विश्वविद्यालय के प्रवर्तक का करीबी और वफादार होना है. मुझे अधिक चिंता कृषि विश्वविद्यालयों की है. कृषि विज्ञान और अनुसंधान प्राथमिक रूप से कुलपति की नेतृत्व क्षमता पर निर्भर करता है. यह न केवल अनुसंधान की उपयोगिता और महत्ता निर्धारित करता है, बल्कि एक तरह से देश की खाद्य सुरक्षा और 60 करोड़ किसानों की आजीविका के लिए भी जिम्मेदार है. कुछ समय पहले तक कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति की नियुक्ति एक राजनीतिक कवायद मानी जाती थी. कई सालों से मैं देख रहा हूं कि कुलपतियों की एकमात्र योग्यता राजनीतिक नेतृत्व से निकटता रह गई है. इसके कुछ अपवाद हो सकते हैं, लेकिन आम तौर पर कुलपति का नामांकन और चयन प्रक्रिया महज एक स्वांग में तब्दील हो गई है.उदाहरण के लिए तमिलनाडु के कोयंबटूर में तमिलनाडु एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी का मामला देखें. यह बेहद प्रतिष्ठित संस्थान रहा है. टीएनएयू देश के सर्वाधिक प्रतिष्ठित कृषि विश्वविद्यालयों में से एक था. देश के अन्य शिक्षण संस्थानों की तरह टीएनएयू में भी शोध और शिक्षा के स्तर में गिरावट आई है, किंतु मैंने यह अपेक्षा नहीं की थी कि यह गिरावट इस सीमा तक पहुंच जाएगी कि कृषि मंत्री का निजी सचिव खुद को इस पद पर नियुक्त कराने में करीब-करीब कामयाब हो सकता है. यह तो टीएनएयू के शिक्षकों की तरफ से उठे तीव्र विरोध के कारण ही ऐसा होने से बच गया. टीएनएयू एक अपवाद है. अधिकांश विश्वविद्यालयों में ऐसे कुलपतियों की नियुक्ति की जा रही है, जो इनके लायक नहीं हैं. यही प्राथमिक कारण है कि कृषि विश्वविद्यालय सार्थक शोध में विफल हो रहे हैं. असल में अधिकांश कृषि विश्वविद्यालय निजी बीज कंपनियों के क्रियाकलापों को दोहरा भर रहे हैं. कुलपति के प्रति आदर भाव अब बीते दिनों की बात हो गया है. कुछ साल पहले जब हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार के कुलपति डीआर भुंबला ने अचानक इस्तीफा दे दिया था तो इसके विरोध में वहां के छात्रों ने हड़ताल कर दी थी. यह एक असाधारण घटना थी. मैंने ऐसा पहले कभी नहीं देखा कि छात्र एक कुलपति को रोकने के लिए आंदोलन शुरू करें. हां, ऐसे तो बहुत से मामले हैं जब छात्रों ने कुलपति को हटाने के लिए हड़ताल की हो. पंजाब एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी, लुधियाना के कुलपति के पद पर कार्य कर चुके विख्यात प्रशासक डा. एमएस रंधावा ने एक मजेदार घटना सुनाई थी. एक दिन हिमाचल प्रदेश के राज्यपाल ने वाईएस परमार यूनिवर्सिटी आफ हार्टिकल्चरल साइंस एंड फोरेस्ट्री, सोलन के कुलपति की नियुक्ति के संबंध में उनसे सलाह मांगी. राज्यपाल ने तीन नामों का विकल्प रखा. डा. रंधावा को जो उपयुक्त लगा उसका सुझाव दिया. कुछ दिनों बाद वह अखबार में यह पढ़कर दंग रह गए कि इस पद पर किसी अन्य व्यक्ति की नियुक्ति कर दी गई थी.
आम चुनाव की तरह ही कृषि व्यवसाय से जुड़ी कंपनियां खास उम्मीदवारों के लिए माहौल बनाने तथा उसके पक्ष में दबाव डालने के काम में लग जाती हैं. शोध कार्ययोजना से उन्हें क्या लेना-देना!
अगर आप चकित हैं कि किस प्रकार कुलपतियों की नियुक्ति होती है तो इस प्रक्रिया की तह में जाने की जरूरत है। दिखावे के लिए तो चुनाव प्रक्रिया योग्यता के आधार पर होती है. द इंडियन काउंसिल फार एग्रीकल्चरल रिसर्च सामान्य तौर पर तीन नामों का एक पैनल बनाती है. ये नाम उस राज्य के राज्यपाल के पास भेजे जाते हैं जिसमें विश्वविद्यालय होता है. विश्वविद्यालय के कुलपति होने के नाते उपराज्यपाल ही अंतिम फैसला लेते हैं, जबकि व्यवहार में प्रदेश के मुख्यमंत्री की राय ही सर्वोपरि मानी जाती है. सच्चाई यह है कि मुख्यमंत्री की पसंद आईसीएआर को पहले ही बता दी जाती है और उम्मीदवारों का चुनाव करते समय इस बात को ध्यान में रखा जाता है. कुछ समय से पेशेवर योग्यता को ताक पर रख दिया गया है. सच यह है कि विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के मुकाबले कुलपति बनना आसान है, किंतु मुझे यह बात परेशान करती है कि जिस पद की कभी अभिलाषा की जाती थी, अब वह बिकाऊ हो गया है. राजनीतिक निकटता ही एकमात्र मापदंड नहीं है. आप कितना खर्च कर सकते हैं, इससे भी अंतिम फैसला प्रभावित होता है. कई कुलपतियों ने मुझे बताया है कि विश्वविद्यालय के प्रमुख होने के लिए कितनी रकम खर्च करनी पड़ती है. आम चुनाव की तरह ही कृषि व्यवसाय से जुड़ी कंपनियां खास उम्मीदवारों के लिए माहौल बनाने तथा उसके पक्ष में दबाव डालने के काम में लग जाती हैं. शोध कार्ययोजना से उन्हें क्या लेना-देना! उन्हें तो बस कंपनी के व्यापारिक हितों की चिंता होती है. यद्यपि यह हरेक मामले में सही नहीं है, किंतु यह विडंबना है कि अधिकांश मामलों में कुलपति रुपयों से भरे सूटकेस लेकर चलते हैं. मैं किसी भी तरह कुलपति पद की अवमानना करना नहीं चाहता, क्योंकि इस पद को धारण करने वाले सभी व्यक्तियों को एक ही श्रेणी में नहीं रखा जा सकता, किंतु गलत कार्यों की अनदेखी करने से कुछ भी हासिल नहीं होगा. पता नहीं इस सड़न को कौन बंद करेगा, किंतु इस पर असहमति की गुंजाइश नहीं है कि इस संस्थान को बचाने की सख्त जरूरत है. देश का भविष्य इस पर निर्भर है कि यहां शिक्षा का क्या स्तर होगा? शिक्षा की गुणवत्ता मुख्यत: कुलपतियों की योग्यता पर निर्भर करती है. घटिया श्रेणी के कुलपतियों के भरोसे हम महाशक्ति बनने की उम्मीद नहीं कर सकते.
Sunday, May 31, 2009
निजी एनर्जी कंपनियों को टेंसन
चंद्रकांत शुक्ला, रायपुर